नर्मदापुरम / जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रचारिका सुश्री धामेश्वरी देवी द्वारा सिवनी मालवा जिला नर्मदापुरम, मोरंड गंजाल कॉलोनी (शिवराज पार्क के बगल से) सिंचाई विभाग की तवा कॉलोनी में चल रही दिव्य आध्यात्मिक प्रवचन श्रृंखला के छठवें दिन बताया कि भगवान् कृपा सभी के ऊपर करना चाहते हैं। किन्तु भगवान् की कृपा का भी एक कानून है। वह कानून है कि जो भी शर्त पूरा करेगा वह उसी पर कृपा करेंगें। वह शर्त तुलसीदास, सुरदास, मीरा, कबीर, नानक, तुकाराम आदि अनेक महापुरुषों ने पूरी कर दी इसलिए उन्हें भगवत्प्राप्ति हो गयी, लेकिन हम लोगों ने शर्त को पूरा नहीं किया, इसलिए अनादिकाल से चैरासी लाख योनियों में भटक रहे है। वह शर्त है – भगवद् शरणागति। यदि कोई भगवान् की शरण में चला जाये तो फिर उसे कुछ करना ही नहीं है। शरणागति के सिद्धांत को हर धर्म मानता है। लेकिन शरणागति का मतलब यह न समझे कि भगवान् कोई मूल्य ले रहे हैं। फिर लोगों को यह लगेगा कि हमने इंद्रियों से चारों धाम किया, भजन गायें, माला फेरी लेकिन इससे अहंकार बढ़ेगा जबकि भगवान् दीनबंधु हैं, उन्हें दीनता पसंद है। इसलिए भगवान् ने गीता में शरणागति का अर्थ बताया अर्थात् कुछ न करना। कुछ न करना का मतलब कर्तापन का अभिमान त्याग देना। कि मैं शरणागत हूं। दूसरी बात यह है कि शरणागति मन को करनी होगी। हम सभी इन्द्रियों से भगवान् की शरणागति करते हैं जैसे हाथों से माला फेरना, वाणी से पाठ करना, पैरों से तीर्थो आदि में जाना, इंद्रियों की भक्ति भगवान नोट नहीं करते । भगवान् मन की भक्ति या मन की शरणागति नोट करते हैं इसलिये वह अकारण करुण है। जहां मन का प्रश्न आता है तो लोग बहाना बनाते हैं कि हमारा मन भगवान् में नहीं लगता। मन की शरणागति पर इसलिये जोर दिया शास्त्रों ने क्योंकि मन ही बंधन का कारण है और मोक्ष का भी कारण है।
गीता भी कहती है- ‘‘मामेकं शरणं ब्रज‘‘, अर्थात् केवल ईश्वर की शरणागति ही करनी है। लेकिन हमने अनादिकाल से संसार को अपना माना, संसारी रिश्तेदारों को अपना माना, संसार में सुख माना इसीलिए हमारी मन बुद्धि की शरणागति भगवान् में न होकर संसार के सामान, रिश्तेदार, नातेदार आदि में हो जाती है। हम यह नहीं जानते कि संसार की वस्तुओं से जो सुख हमें मिलता है वह क्षणिक होता है और शीघ्र ही नष्ट भी हो जाता है। इसके विपरीत भगवान का सुख भूमा होता है, अर्थात् वह कभी नष्ट नहीं होता और प्रतिक्षण बढ़ता जाता है। शरणागति मन को ही करनी होती है, इंद्रियों की भक्ति से काम नहीं चलेगा, उसका परिणाम सदैव शून्य ही आएगा। इसलिए हमें बार बार मन बुद्धि में इस बात को बिठाना होगा कि केवल भगवान् में ही वास्तविक सुख है, संसार में सुख नहीं है। इसका बार बार अभ्यास करना होगा। संसार से मन हटाना और भगवान में मन लगाना, निरंतर इसी का अभ्यास करना होगा, तभी वास्तविक शरणागति और भगवान् की प्राप्ति हो सकेगी। यह मन अनादिकाल से संसार में आसक्त है और जब तक यह संसार में आसक्त है तो भगवान् में लग ही नहीं सकता। तदर्थ मन को संसार से विरक्त करना होगा यदि हम मन को संसार से विरक्त नहीं करेंगें तो केवल इंद्रियों से ही भगवान् की भक्ति करेंगें और इंद्रियों की भक्ति भक्ति नहीं है। मन भगवान् में तभी लगेगा जब संसार से विरक्त हो जाए। और संसार से विरक्त तब तक नहीं हो सकता जब तक संसार का वास्तविक स्वरूप न समझ लें। तो संसार का वास्तविक स्वरूप क्या है यह देवी जी कल बताएंगी। दिव्य आध्यात्मिक प्रवचन श्रृंखला का आयोजन दिनांक 21 जून 2025 तक प्रतिदिन शाम 7 से रात 9 बजे तक होगा।
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